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इक ढब पे कभू वो बुत-ए-ख़ुद-काम न पाया | शाही शायरी
ek Dhab pe kabhu wo but-e-KHud-kaam na paya

ग़ज़ल

इक ढब पे कभू वो बुत-ए-ख़ुद-काम न पाया

क़ाएम चाँदपुरी

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इक ढब पे कभू वो बुत-ए-ख़ुद-काम न पाया
देखा में जो कुछ सुब्ह उसे शाम न पाया

अपनी ही हवस के ये सब उलझाव हैं वर्ना
इस राह में हम ने तो कहीं दाम न पाया

वो नख़्ल-ए-ख़िज़ाँ-दीदा हूँ उस दश्त में जिस के
साये में किसी पहुँचे ने बिसराम न पाया

वो बे-सर-ओ-तन है ये ज़माना कि ब-ईं-ग़ौर
जिस का मैं कुछ आग़ाज़ और अंजाम न पाया

फ़हरिस्त में ख़ूबान-ए-वफ़ादार की प्यारे
देखी तो कहीं उस में तिरा नाम न पाया

मामूल था दुश्नाम एवज़ अपनी दुआ का
सो वो भी कई दिन से मैं इनआम न पाया

यक शब वो कहीं गोद में सोया था सो 'क़ाएम'
फिर बालिश-ए-मख़मल से मैं आराम न पाया