इक ढब पे कभू वो बुत-ए-ख़ुद-काम न पाया
देखा में जो कुछ सुब्ह उसे शाम न पाया
अपनी ही हवस के ये सब उलझाव हैं वर्ना
इस राह में हम ने तो कहीं दाम न पाया
वो नख़्ल-ए-ख़िज़ाँ-दीदा हूँ उस दश्त में जिस के
साये में किसी पहुँचे ने बिसराम न पाया
वो बे-सर-ओ-तन है ये ज़माना कि ब-ईं-ग़ौर
जिस का मैं कुछ आग़ाज़ और अंजाम न पाया
फ़हरिस्त में ख़ूबान-ए-वफ़ादार की प्यारे
देखी तो कहीं उस में तिरा नाम न पाया
मामूल था दुश्नाम एवज़ अपनी दुआ का
सो वो भी कई दिन से मैं इनआम न पाया
यक शब वो कहीं गोद में सोया था सो 'क़ाएम'
फिर बालिश-ए-मख़मल से मैं आराम न पाया
ग़ज़ल
इक ढब पे कभू वो बुत-ए-ख़ुद-काम न पाया
क़ाएम चाँदपुरी