इक चाँद तीरगी में समर रौशनी का था
फिर भेद खुल गया वो भँवर रौशनी का था
सूरज पे तू ने आँख तरेरी थी याद कर
बीनाइयों पे फिर जो असर रौशनी का था
सब चाँदनी किसी की इनायत थी चाँद पर
उस दाग़दार शो पे कवर रौशनी का था
मग़रिब की मद-भरी हुई रातों में खो गया
इस घर में कोई लख़्त-ए-जिगर रौशनी का था
दरिया में उस ने डूब के कर ली है ख़ुद-कुशी
जिस शय का आसमाँ पे सफ़र रौशनी का था
ज़र्रे को आफ़्ताब बनाया था हम ने और
धरती पे क़हर शाम-ओ-सहर रौशनी का था
ग़ज़ल
इक चाँद तीरगी में समर रौशनी का था
मयंक अवस्थी