EN اردو
इक बे-निशान हर्फ़-ए-सदा की तरफ़ न देख | शाही शायरी
ek be-nishan harf-e-sada ki taraf na dekh

ग़ज़ल

इक बे-निशान हर्फ़-ए-सदा की तरफ़ न देख

अरमान नज्मी

;

इक बे-निशान हर्फ़-ए-सदा की तरफ़ न देख
वो दूर जा चुका है हवा की तरफ़ न देख

आबाद कर ले दीदा-ओ-दिल में सनम-कदे
कहता है वो कि एक ख़ुदा की तरफ़ न देख

अपनी ही आफ़ियत की तग-ओ-दौ में महव रह
इस सर-ज़मीन-आह-ओ-बुका की तरफ़ न देख

अपने उफ़ुक़ की तंग फ़ज़ा से ही काम रख
मैदान-ए-हश्र दश्त-ए-बला की तरफ़ न देख

कर ले न अपने शहर-ए-तिलिस्मात का असीर
उस की निगाह-ए-होश-रुबा की तरफ़ न देख

रख ख़ाक-ए-दिल पे अपने क़दम एहतियात से
मौज-ए-हवा-ए-सम्त-नुमा की तरफ़ न देख