इक बर्ग-ए-सब्ज़ शाख़ से कर के जुदा भी देख
मैं फिर भी जी रहा हूँ मिरा हौसला भी देख
ज़र्रे की शक्ल में मुझे सिमटा हुआ न जान
सहरा के रूप में मुझे फैला हुआ भी देख
तू ने तो मुश्त-ए-ख़ाक समझ कर उड़ा दिया
अब मुझ को अपनी राह में बिखरा हुआ भी देख
माना कि तेरा मुझ से कोई वास्ता नहीं
मिलने के बअ'द मुझ से ज़रा आइना भी देख
तेरे लिए तो सिर्फ़ इशारों का खेल था
मुझ को जो पेश आया है वो हादसा भी देख
औरों के पास जा के मिरी दास्ताँ न पूछ
जो कुछ है मेरे चेहरे पे लिक्खा हुआ भी देख
हमवार रास्तों पे मिरा साथ छोड़ कर
आगे निकल गया था तो अब रास्ता भी देख
चेहरे की चाँदनी पे न इतना भी मान कर
वक़्त-ए-सहर तो रंग कभी चाँद का भी देख
ग़ज़ल
इक बर्ग-ए-सब्ज़ शाख़ से कर के जुदा भी देख
मुर्तज़ा बिरलास