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इक बार अपना ज़र्फ़-ए-नज़र देख लीजिए | शाही शायरी
ek bar apna zarf-e-nazar dekh lijiye

ग़ज़ल

इक बार अपना ज़र्फ़-ए-नज़र देख लीजिए

आजिज़ मातवी

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इक बार अपना ज़र्फ़-ए-नज़र देख लीजिए
फिर चाहे जिस के ऐब-ओ-हुनर देख लीजिए

क्या जाने किस मक़ाम पे किस शय की हो तलब
चलने से पहले ज़ाद-ए-सफ़र देख लीजिए

हो जाएगा ख़ुद आप को एहसास बे-रुख़ी
गर आप मेरा ज़ख़्म-ए-जिगर देख लीजिए

सब की तरफ़ है आप की चश्म-ए-नवाज़िशात
काश एक बार आप इधर देख लीजिए

तारे मैं तोड़ लाऊँगा आकाश से मगर
शफ़क़त से आप बाज़ू-ओ-पर देख लीजिए

जम्हूरियत का दर्स अगर चाहते हैं आप
कोई भी साया-दार शजर देख लीजिए

हो जाएगी हक़ीक़त-ए-शम्स-ओ-क़मर अयाँ
उन को निगाह भर के अगर देख लीजिए

ये बर्क़-ए-हादिसात भी क्या ज़ुल्म ढाएगी
उठने लगे गुलों से शरर देख लीजिए

'आजिज़' चली हैं ऐसी तअ'स्सुब की आँधियाँ
उजड़े हुए नगर के नगर देख लीजिए