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इक अज़ाब होता है रोज़ जी का खोना भी | शाही शायरी
ek azab hota hai roz ji ka khona bhi

ग़ज़ल

इक अज़ाब होता है रोज़ जी का खोना भी

शाहिद लतीफ़

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इक अज़ाब होता है रोज़ जी का खोना भी
रो के मुस्कुराना भी मुस्कुरा के रोना भी

रौनक़ें थी शहरों में बरकतें मोहल्लों में
अब कहाँ मयस्सर है घर में घर का होना भी

दिल के खेल में हर दम एहतियात लाज़िम है
टूट-फूट जाता है वर्ना ये खिलौना भी

दीदनी है साहिल पर ये ग़ुरूब का मंज़र
बह रहा है पानी में आसमाँ का सोना भी

रात ही के दामन में चाँद भी हैं तारे भी
रात ही की क़िस्मत है बे-चराग़ होना भी

वक़्त आ पड़ा ऐसा वक़्त ही नहीं मिलता
छुट गया है बरसों से अपना रोना-धोना भी