इक और सियह रात है इस रात से आगे
अब बात निकल जाने को है बात से आगे
कोशिश तो बहुत करता हूँ खुलता ही नहीं वो
बैठा है कहीं शक सा मुलाक़ात से आगे
देने को बहुत कुछ है मगर वक़्त-ए-सख़ावत
होता ही नहीं कोई मिरी ज़ात से आगे
थी कैसी तलब जिस को पकड़ने के जुनूँ में
दिल चलता रहा चार क़दम हात से आगे
हाँ राहत-ए-दिल जान-ए-नज़र होंगे मनाज़िर
देखा ही नहीं कुछ बसर-औक़ात से आगे
थोड़ा सा कहीं जम्अ भी रख दर्द का पानी
मौसम है कोई ख़ुश्क सा बरसात से आगे
यूँ तर्क-ए-तअल्लुक़ न करो इस से भी 'शाहीं'
कुछ अच्छे मरासिम नहीं हालात से आगे
ग़ज़ल
इक और सियह रात है इस रात से आगे
जावेद शाहीन