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इक अक्स दिल के तट से बे-इख़्तियार फूटे | शाही शायरी
ek aks dil ke taT se be-iKHtiyar phuTe

ग़ज़ल

इक अक्स दिल के तट से बे-इख़्तियार फूटे

नासिर शहज़ाद

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इक अक्स दिल के तट से बे-इख़्तियार फूटे
जब चाँद उस नगर की झीलों के पार फूटे

सदक़ा उतारने को तेरे मधुर नयन का
उभरे कई सितारे ग़ुंचे हज़ार फूटे

वो और मैं नदी के नग़्मों पे बहती नाव
नाव में उस के मुख से उजला निखार फूटे

कानों में अब भी खनकें गजरे तिरे गजर-दम
इस घर से जब धुएँ का नीला ग़ुबार फूटे

मुझ को झुला रहे हैं गीतों के झूलने में
नग़्मे जो पायलों के सपनों के द्वार फूटे

उस साँवले बदन पर महकें ख़ुनुक सवेरे
उन मस्त अँखड़ियों से रंगों की फुवार फूटे

मत रो फिर आऊँगा मैं पर्बत पे तुझ से मिलने
जब बर्फ़-ज़ार पिघले जब आबशार फूटे