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इक ऐसा मोड़ सर-ए-रहगुज़र भी आएगा | शाही शायरी
ek aisa moD sar-e-rahguzar bhi aaega

ग़ज़ल

इक ऐसा मोड़ सर-ए-रहगुज़र भी आएगा

मुनव्वर हाशमी

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इक ऐसा मोड़ सर-ए-रहगुज़र भी आएगा
वुफ़ूर-ए-ख़ौफ़ में लुत्फ़-ए-सफ़र भी आएगा

ये उस का शहर है उस की महक बताती है
ज़रा तलाश करो उस का घर भी आएगा

इसी यक़ीन पर हर ज़ुल्म सहते रहते हैं
कि शाख़-ए-सब्र पे इक दिन समर भी आएगा

क़रीब-ए-मंज़िल-ए-जानाँ सुरूर-ए-दिल के साथ
जुनूँ की फ़ित्ना-तराज़ी से डर भी आएगा

खुले रहेंगे दरीचे इस आस पर घर के
कभी तो झोंका हवा का इधर भी आएगा

छुपाए फिरने से कब इश्क़-ओ-मुश्क छुपते हैं
चढ़ेगा चाँद तो सब को नज़र भी आएगा

अब उस के बंद किवाड़ों के पास बैठ रहें
जो शख़्स घर से गया है वो घर भी आएगा

सरिश्क-ए-ख़ूँ की तरह लफ़्ज़ आँख से टपकें
तो फिर दुआ में 'मुनव्वर' असर भी आएगा