इक अधूरी सी कहानी मैं सुनाता कैसे
याद आता भी नहीं ख़्वाब वो बिखरा कैसे
कितने सायों से भरी है ये हवेली दिल की
ऐसी भगदड़ में कोई शख़्स ठहरता कैसे
फूल ज़ख़्मों के यहाँ और भी चुन लूँ लेकिन
अपना दामन मैं करूँ और कुशादा कैसे
दुख के सैलाब में डूबा था वो ख़ुद ही इतना
मेरी आँखो तुम्हें देता वो दिलासा कैसे
काँच के ज़ार से बस देखता रहता था तुम्हें
बंद शीशों से मैं आवाज़ लगाता कैसे
इस का फन मैं ने बहुत देर तलक कुचला था
रह गया साँप तिरे दर्द का ज़िंदा कैसे
अब तो आँखों में सियाही सी भरी रहती है
ऐसे आलम में कोई ख़्वाब हो उजला कैसे
दाग़ ही दाग़ उभर आए मिरे चेहरे पर
रंग मेरा ऐ मुसव्विर हुआ भद्दा कैसे
ख़ुश्क मिट्टी में पड़ा था मिरे दिल का पौधा
इस की शाख़ों पे कोई फूल भी आता कैसे
ग़ज़ल
इक अधूरी सी कहानी मैं सुनाता कैसे
आलोक मिश्रा