इक आस का दिया तो दिल में जलाते जाओ
किस मोड़ पर मिलोगे ये तो बताते जाओ
उस दर से जा मिलेंगे ये जितने रास्ते हैं
काँटे हटाते जाओ कलियाँ बिछाते जाओ
पत्थर में भी छुपा है नग़्मात का ख़ज़ाना
ये शर्त है कि उस तक तुम गुनगुनाते जाओ
जब मय-कदे से लौटो फिर क्या किसी से छुपना
जब मय-कदे को जाओ छुपते छुपाते जाओ
ऐ मुनकिरीन-ए-उल्फ़त मैं उस की याद में हूँ
एक एक आते जाओ ईमान लाते जाओ
जल्दी भी क्या है आख़िर इतनी 'शकील'-साहब
अब आए हो तो सब से मिलते-मिलाते जाओ
ग़ज़ल
इक आस का दिया तो दिल में जलाते जाओ
शकील ग्वालिआरी