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इक आह-ए-ज़ेर-ए-लब के गुनहगार हो गए | शाही शायरी
ek aah-e-zer-e-lab ke gunahgar ho gae

ग़ज़ल

इक आह-ए-ज़ेर-ए-लब के गुनहगार हो गए

अली जव्वाद ज़ैदी

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इक आह-ए-ज़ेर-ए-लब के गुनहगार हो गए
अब हम भी दाख़िल-ए-सफ़-ए-अग़्यार हो गए

जिस दर्द को समझते थे हम उन का फ़ैज़-ए-ख़ास
उस दर्द के भी लाख ख़रीदार हो गए

जिन हौसलों से मेरा जुनूँ मुतमइन न था
वो हौसले ज़माने के मेआ'र हो गए

हर वा'दा जैसे हर्फ़-ए-ग़लत था सराब था
हम तो निसार-ए-जुरअत-ए-इंकार हो गए

सरसब्ज़ पत्तियों का लहू चूस चूस कर
कितने ही फूल रौनक़-ए-गुलज़ार हो गए

'ज़ैदी' ने ताज़ा शे'र सुनाए ब-रंग-ए-ख़ास
हम भी ख़ुदा-ए-शोख़ी-ए-अफ़्कार हो गए