EN اردو
ईमाँ की नुमाइश है सज्दे हैं कि अफ़्साने | शाही शायरी
iman ki numaish hai sajde hain ki afsane

ग़ज़ल

ईमाँ की नुमाइश है सज्दे हैं कि अफ़्साने

सिराज लखनवी

;

ईमाँ की नुमाइश है सज्दे हैं कि अफ़्साने
हैं चाँद जबीनों पर और ज़ेहन में बुत-ख़ाने

कुछ अक़्ल के मतवाले कुछ इश्क़ के दीवाने
पर्वाज़ कहाँ तक है किस की ये ख़ुदा जाने

कम-ज़र्फ़ की निय्यत क्या पिघला हुआ लोहा है
भर भर के छलकते हैं अक्सर यही पैमाने

अब रंग के नस्लों के बुत टूट चुके साक़ी
अब क्यूँ दिए जाते हैं पहचान के पैमाने

तम्हीद-ए-क़यामत है इक रात का हंगामा
एहसास की शमएँ हैं जज़्बात के परवाने

साक़ी के सलीक़े पर हुस्न-ए-दो-जहाँ सदक़े
सय्यारों की गर्दिश है या दौर में पैमाने

ये एक लड़ी के सब छिटके हुए मोती हैं
का'बे ही की शाख़ें हैं बिखरे हुए बुत-ख़ाने

कुछ तिश्ना-लब ऐ साक़ी ख़ुद्दार भी होते हैं
उड़ जाएगी मय रक्खे रह जाएँगे पैमाने

इक काफ़िर-ए-मुतलक़ है ज़ुल्मत की जवानी भी
बे-रहम अँधेरा है शमएँ हैं न परवाने

तारीख़ वरक़ अपना उल्टेगी 'सिराज' इक दिन
आफ़ाक़ में फिर ज़िंदा होंगे मिरे अफ़्साने