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इदराक ही मुहाल है ख़्वाब-ओ-ख़याल का | शाही शायरी
idrak hi muhaal hai KHwab-o-KHayal ka

ग़ज़ल

इदराक ही मुहाल है ख़्वाब-ओ-ख़याल का

सबीला इनाम सिद्दीक़ी

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इदराक ही मुहाल है ख़्वाब-ओ-ख़याल का
दिल के वरक़ पे अक्स है उस के जमाल का

रोती नहीं हूँ मैं कभी दुनिया के सामने
रखती हूँ हौसला मैं निहायत कमाल का

हैं मरहले अजीब ये ईश्क़-ओ-ख़िरद के भी
लम्हों में कर रही हूँ सफ़र माह-ओ-साल का

दरवेश है कोई तो क़लंदर वली कोई
बंदों ने पाया इश्क़ में रुत्बा कमाल का

इतने सुकूँ से मैं ने किया इश्क़ का सफ़र
आया नहीं गुमान किसी एहतिमाल का

कैसा अजीब दौर है मौजूदा दौर भी
मफ़्हूम कोई समझे न दिल के सवाल का

दम घुट रहा हो जब मिरा अपने वजूद में
क्या ख़ाक तज़्किरा हो फ़िराक़-ओ-विसाल का

करती नहीं 'सबीला' गिला मैं ये सोच कर
साथी नहीं यहाँ कोई रंज-ओ-मलाल का