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इधर माइल कहाँ वो मह-जबीं है | शाही शायरी
idhar mail kahan wo mah-jabin hai

ग़ज़ल

इधर माइल कहाँ वो मह-जबीं है

मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता

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इधर माइल कहाँ वो मह-जबीं है
फ़लक को मुझ से क्यूँ पुरख़ाश-ओ-कीं है

न देखा अपने बिस्मिल का तमाशा
क़रीब आ कर वो कितना दूर-बीं है

ये अच्छा है तो अच्छा ग़ैर को भी
सताओ और पूछो क्यूँ ग़मीं है

हमें सूरत दिखाए क्या तमन्ना
कि आशिक़ जिस के हैं पर्दा-नशीं है

ये मुझ से शिकवा है अल्लाह रे शोख़ी
कि मेरे ग़म से तू अंदोह-गीं है

ये कैसा तफ़रक़ा हिज्राँ ने डाला
कहें क्या हम कहीं हैं दिल कहीं है

न पूछो 'शेफ़्ता' का हाल साहब
ये हालत है कि अपने में नहीं है