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इब्तिदा थी न इंतिहा कुछ देर | शाही शायरी
ibtida thi na intiha kuchh der

ग़ज़ल

इब्तिदा थी न इंतिहा कुछ देर

सय्यद अमीन अशरफ़

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इब्तिदा थी न इंतिहा कुछ देर
दरमियाँ थी मगर सदा कुछ देर

वो मिरे साथ साथ चलता था
मैं जिसे पूछता रहा कुछ देर

उस का ध्यान उस की याद जैसे गुलाब
नाज़-परवर्दा-ए-सबा कुछ देर

अजनबी शक्ल पर पड़ी थी नज़र
आई है बू-ए-आश्ना कुछ देर

और क्या थी हक़ीक़त-ए-दुनिया
हाथ पर हाथ था धरा कुछ देर

गुहर-ए-ख़स्ता आब-दार हुआ
ख़ाक-ओ-ख़ूँ में पड़ा रहा कुछ देर

अस्ल किरदार दस्त-ए-गुल-चीं है
बाद-ए-सरसर थी शोला-ज़ा कुछ देर