इब्तिदा थी न इंतिहा कुछ देर
दरमियाँ थी मगर सदा कुछ देर
वो मिरे साथ साथ चलता था
मैं जिसे पूछता रहा कुछ देर
उस का ध्यान उस की याद जैसे गुलाब
नाज़-परवर्दा-ए-सबा कुछ देर
अजनबी शक्ल पर पड़ी थी नज़र
आई है बू-ए-आश्ना कुछ देर
और क्या थी हक़ीक़त-ए-दुनिया
हाथ पर हाथ था धरा कुछ देर
गुहर-ए-ख़स्ता आब-दार हुआ
ख़ाक-ओ-ख़ूँ में पड़ा रहा कुछ देर
अस्ल किरदार दस्त-ए-गुल-चीं है
बाद-ए-सरसर थी शोला-ज़ा कुछ देर

ग़ज़ल
इब्तिदा थी न इंतिहा कुछ देर
सय्यद अमीन अशरफ़