इब्तिदा से मैं इंतिहा का हूँ
मैं हूँ मग़रूर और बला का हूँ
तू भी है इक चराग़-ए-मोहलत-ए-शब
मैं भी झोंका किसी हवा का हूँ
फेंक मुझ पर कमंद-ए-नाज़ अपनी
आज मैं हम-सफ़र सबा का हूँ
जिस में मल्बूस चाँद रहता है
मैं भी तक्मा उसी क़बा का हूँ
मुझ को अपना समझ रही है तू
मैं किसी और बेवफ़ा का हूँ
इस में मेरी ख़ता नहीं कोई
मुर्तकिब बस इसी ख़ता का हूँ
ज़िंदगी मैं अभी सलामत हूँ
मैं असर तेरी बद-दुआ' का हूँ
मुझ पे रखता है तोहमत-ए-इल्हाद
मैं भी बंदा इसी ख़ुदा का हूँ
उजड़े ख़ेमों का सोगवार हूँ मैं
मैं अज़ादार कर्बला का हूँ
मुझ को 'शाहिद'-कमाल कहते हैं
मैं भी शाइ'र हूँ और बला का हूँ
ग़ज़ल
इब्तिदा से मैं इंतिहा का हूँ
शाहिद कमाल