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हूर-ओ-ग़िल्माँ के तलबगार से वाक़िफ़ मैं हूँ | शाही शायरी
hur-o-ghilman ke talabgar se waqif main hun

ग़ज़ल

हूर-ओ-ग़िल्माँ के तलबगार से वाक़िफ़ मैं हूँ

अंजुम अज़ीमाबादी

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हूर-ओ-ग़िल्माँ के तलबगार से वाक़िफ़ मैं हूँ
साहब-ए-जुब्बा-ओ-दस्तार से वाक़िफ़ मैं हूँ

शहर में आप फ़रिश्तों से भी बढ़ कर ठहरे
हाँ मगर आप के किरदार से वाक़िफ़ मैं हूँ

हक़-नवाई का समझता हूँ इसे मैं इनआ'म
क़ैद-ओ-ज़िन्दाँ रसन-ओ-दार से वाक़िफ़ मैं हूँ

वो है मजबूर तलब से भी सिवा देने पर
ख़ूबी-ए-जुरअत-ए-इज़हार से वाक़िफ़ मैं हूँ

मुंसिफ़ी चूमती रहती है दर-ए-अहल-ए-दिल
ऐ अदालत तिरे किरदार से वाक़िफ़ मैं हूँ

सर सलामत है तो रौज़न भी बना लूँगा मैं
हब्स तेरे दर-ओ-दीवार से वाक़िफ़ मैं हूँ

किब्र-ओ-नख़वत का है इल्ज़ाम अबस 'अंजुम' पर
उस के इख़्लास से अफ़्कार से वाक़िफ़ मैं हूँ