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हूँ मैं भी वही मेरा मुक़ाबिल भी वही है | शाही शायरी
hun main bhi wahi mera muqabil bhi wahi hai

ग़ज़ल

हूँ मैं भी वही मेरा मुक़ाबिल भी वही है

सलीम शाहिद

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हूँ मैं भी वही मेरा मुक़ाबिल भी वही है
पत्थर भी वही आईना-ए-दिल भी वही है

मजबूर हूँ मैं आब-ओ-हवा है मिरी मुख़्तार
जो लाला-ओ-गुल की है मिरी गुल भी वही है

जैसे वो किसी आइना-ख़ाना में मकीं हो
पैकर भी वही अक्स वही ज़िल भी वही है

ये ख़्वाब का आलम है कि लम्हात हैं साकित
मैं अब भी वहीं बैठा हूँ महफ़िल भी वही है

किस फ़िक्र में हो घर की तरफ़ लौट भी जाओ
जो नुक़्ता-ए-आग़ाज़ है मंज़िल भी वही है

जिस ने मुझे परवाज़ ये आमादा किया था
क्या कीजे कि अब राह में हाइल भी वही है

'शाहिद' हैं अभी कोहर के बादल जो कभी थे
और बर्फ़ की सीने पे अभी सिल भी वही है