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हूँ कालबुद-ए-ख़ाक में मेहमाँ कोई दिन और | शाही शायरी
hun kalbud-e-KHak mein mehman koi din aur

ग़ज़ल

हूँ कालबुद-ए-ख़ाक में मेहमाँ कोई दिन और

निहाल सेवहारवी

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हूँ कालबुद-ए-ख़ाक में मेहमाँ कोई दिन और
क़िस्मत में है पाबंदी-ए-ज़िंदाँ कोई दिन और

है दफ़्तर-ए-आलम को ज़रूरत अभी मेरी
करनी है मुझे ख़िदमत-ए-उन्वाँ कोई दिन और

आने ही को है मौसम-ए-गुल ख़ैर मना ले
दामाँ कोई दिन और गरेबाँ कोई दिन और

ऐ अब्र यूँही क़तरा-ए-फ़शाँ रह अभी कुछ रोज़
मय-ख़्वारों पे होता रहे एहसाँ कोई दिन और

आमादा-ए-रुख़स्त है मिरा अहद-ए-जवानी
ख़ातिर का लहू चूस ले अरमाँ कोई दिन और

कुछ रोज़ ठहर और भी ऐ शम्अ'-ए-शब-अफ़रोज़
पुर-नूर रहे मेरा शबिस्ताँ कोई दिन और

क्यूँ रू-कश-ए-आलम है निहाल-ए-जिगर-अफ़गार
रहना था नवा-संज-ए-ग़ज़ल-ख़्वाँ कोई दिन और