हू-ब-हू आप ही की मूरत है
ज़िंदगी कितनी ख़ूबसूरत है
जिस तरह फूल की गुलिस्ताँ को
ज़िंदगी को मिरी ज़रूरत है
ख़ास मेहमाँ हैं आदम ओ हव्वा
इक नई दुनिया की महूरत है
कहती है कुछ ज़बाँ से कह 'अकबर'
इस तरह काहे मुझ को घूरत है
ग़ज़ल
हू-ब-हू आप ही की मूरत है
अकबर हमीदी