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हुसूल-ए-ग़म ब-अल्फ़ाज़-ए-दिगर कुछ और होता है | शाही शायरी
husul-e-gham ba-alfaz-e-digar kuchh aur hota hai

ग़ज़ल

हुसूल-ए-ग़म ब-अल्फ़ाज़-ए-दिगर कुछ और होता है

जलील इलाहाबादी

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हुसूल-ए-ग़म ब-अल्फ़ाज़-ए-दिगर कुछ और होता है
दिल-ए-बर्बाद का अज़्म-ए-सफ़र कुछ और होता है

तुलू-ए-सुब्ह की किरनें बहुत ही ख़ूब हैं लेकिन
जमाल-ए-शहर-ए-दिल वक़्त-ए-सहर कुछ और होता है

मसाइब किस को कहते हैं तुम्हीं जानो तुम्हीं समझो
जहाँ वालो हमारा दिल जिगर कुछ और होता है

शराब-ए-तल्ख़ क्या है ज़हर-ए-क़ातिल तक पिया हम ने
मगर इन मस्त नज़रों का असर कुछ और होता है

मुक़ाबिल आइने के आइना भी हम ने देखा है
घटाओं में मिरा रश्क-ए-क़मर कुछ और होता है

जहाँ पाबंदियाँ लाज़िम न हों सज्दा-गुज़ारों पर
इबादत के लिए वो संग-ए-दर कुछ और होता है

'जलील' अक्सर ये पाया इम्तियाज़-ए-इश्क़ में हम ने
इधर कुछ और होता है उधर कुछ और होता है