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हुस्न मजबूर-ए-जफ़ा है शायद | शाही शायरी
husn majbur-e-jafa hai shayad

ग़ज़ल

हुस्न मजबूर-ए-जफ़ा है शायद

सूफ़ी तबस्सुम

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हुस्न मजबूर-ए-जफ़ा है शायद
ये भी इक तर्ज़-ए-अदा है शायद

एक ग़मनाक सी आती है सदा
कोई दिल टूट रहा है शायद

ख़ुद-फ़रामोश हुआ जाता हूँ
तू मुझे भूल गया है शायद

इन हसीं चाँद सितारों में कहीं
तेरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा है शायद

एक दुनिया से हुए बेगाने
तुझ से मिलने का सिला है शायद

हर घड़ी अश्क-फ़िशाँ हैं आँखें
यही अंजाम-ए-वफ़ा है शायद

इन लबों पर ये तबस्सुम की ज़िया
शोख़ी-ए-बख़्त-ए-रसा है शायद