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हुस्न किस रोज़ हम से साफ़ हुआ | शाही शायरी
husn kis roz humse saf hua

ग़ज़ल

हुस्न किस रोज़ हम से साफ़ हुआ

हैदर अली आतिश

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हुस्न किस रोज़ हम से साफ़ हुआ
गुनह-ए-इश्क़ कब मुआफ़ हुआ

ले लिया शुक्र कर के साक़ी से
दर्द इस में हुआ कि साफ़ हुआ

तेग़-ए-क़ातिल पर अपना ख़ून जम कर
मख़मल-ए-सुर्ख़ का ग़िलाफ़ हुआ

ज़हर परहेज़ हो गया मुझ को
दर्द दरमाँ से अलमुज़ाफ़ हुआ

ख़ाकसारी की हो चुकी मेराज
सीना अपना ज़मीन-ए-साफ़ हुआ

कमर-ए-यार ने दिखाई आँख
मर्दुम-दीदा ख़ाल-ए-नाफ़ हुआ

वादा झूटा नकर्दा मर्द नहीं
क़ौल से फ़े'अल जब ख़िलाफ़ हुआ

फ़ातिहा को जो वो परी आई
संग-ए-क़ब्र अपना कोह-ए-क़ाफ़ हुआ

उस कमर के सुबूत में आजिज़
फ़िक्र कर कर के मूशिगाफ़ हुआ

रिंद-मशरब हूँ मुझ को क्या होवे
मज़हबों में जो इख़्तिलाफ़ हुआ

वो दहन हूँ न निकला हर्फ़-ए-ग़ुरूर
वो ज़बाँ हूँ न जिस से लाफ़ हुआ

गिर्द इस कूचा के फिरा 'आतिश'
हाजी से काबा का तवाफ़ हुआ