हुस्न की गर ज़कात पाऊँ मैं
तो भिकारी तिरा कहाऊँ मैं
एक बोसा दो दूसरा तौबा
फिर जो माँगूँ तो मार खाऊँ मैं
इस तरह लूँ कि भाप भी न लगे
होंट से मुँह अगर मिलाऊँ मैं
शहर को छोड़ कर निकल जाऊँ
हाँ तुझे मुँह न फिर दिखाऊँ मैं
ग़ज़ल
हुस्न की गर ज़कात पाऊँ मैं
मीर सोज़