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हुस्न की गर ज़कात पाऊँ मैं | शाही शायरी
husn ki gar zakat paun main

ग़ज़ल

हुस्न की गर ज़कात पाऊँ मैं

मीर सोज़

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हुस्न की गर ज़कात पाऊँ मैं
तो भिकारी तिरा कहाऊँ मैं

एक बोसा दो दूसरा तौबा
फिर जो माँगूँ तो मार खाऊँ मैं

इस तरह लूँ कि भाप भी न लगे
होंट से मुँह अगर मिलाऊँ मैं

शहर को छोड़ कर निकल जाऊँ
हाँ तुझे मुँह न फिर दिखाऊँ मैं