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हुस्न-ए-मुत्लक़ है क्या किसे मालूम | शाही शायरी
husn-e-mutlaq hai kya kise malum

ग़ज़ल

हुस्न-ए-मुत्लक़ है क्या किसे मालूम

सेहर इश्क़ाबादी

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हुस्न-ए-मुत्लक़ है क्या किसे मालूम
इब्तिदा इंतिहा किसे मालूम

मेरी बेताबियों की खा के क़सम
बर्क़ ने क्या किया किसे मालूम

दिन दहाड़े शबाब के हाथों
हाए मैं लुट गया किसे मालूम

मेरी कुछ गर्म ओ सर्द आहों से
आसमाँ क्या हुआ किसे मालूम

हुस्न का हर ख़याल रौशन है
इश्क़ का मुद्दआ किसे मालूम

'सेहर' के हम-नवा फ़रिश्ते हैं
है मक़ाम उस का क्या किसे मालूम