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हुस्न-ए-मा'सूम अगर राज़-ए-निहाँ तक पहुँचे | शाही शायरी
husn-e-masum agar raaz-e-nihan tak pahunche

ग़ज़ल

हुस्न-ए-मा'सूम अगर राज़-ए-निहाँ तक पहुँचे

अरशद सिद्दीक़ी

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हुस्न-ए-मा'सूम अगर राज़-ए-निहाँ तक पहुँचे
ग़म का मेआ'र ख़ुदा जाने कहाँ तक पहुँचे

इश्क़ में यूँ तो सभी सूद-ओ-ज़ियाँ तक पहुँचे
कम हैं ऐसे जो मिरे अज़्म-ए-जवाँ तक पहुँचे

हम पहुँचने को तो हर वहम-ओ-गुमाँ तक पहुँचे
तुम वहाँ हो कि नज़र भी न जहाँ तक पहुँचे

वो मुसीबत जिसे दुनिया ग़म-ए-दिल कहती है
मैं न रोकूँ तो ख़ुदा जाने कहाँ तक पहुँचे

तुम कहीं जा के छुपो दावत-ए-नज़्ज़ारा तो दो
फिर ये मक़्दूर-ए-नज़र है कि जहाँ तक पहुँचे

हुक्म है चाहे गुलिस्ताँ का गुलिस्ताँ जल जाए
हाथ लेकिन न कोई बर्क़-ए-तपाँ तक पहुँचे

तुम रह-ए-इश्क़ में लिल्लाह मिरा साथ न दो
सिलसिला ग़म का ख़ुदा जाने कहाँ तक पहुँचे

उफ़ वो नज़रें जो मोहब्बत का भरम रख न सकें
हाए वो कैफ़ जो एहसास-ए-गराँ तक पहुँचे

राज़-ए-उल्फ़त मैं छुपाता तो हूँ लेकिन 'अरशद'
डर है एहसास की तल्ख़ी न ज़बाँ तक पहुँचे