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हुस्न-ए-फ़ितरत के अमीं क़ातिल-ए-किरदार न बन | शाही शायरी
husn-e-fitrat ke amin qatil-e-kirdar na ban

ग़ज़ल

हुस्न-ए-फ़ितरत के अमीं क़ातिल-ए-किरदार न बन

फ़ितरत अंसारी

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हुस्न-ए-फ़ितरत के अमीं क़ातिल-ए-किरदार न बन
शोहरत-ए-ग़म के लिए रौनक़-ए-बाज़ार न बन

तारिक-ए-रस्म-ए-वफ़ा और गुनहगार न बन
महरम-ए-इश्क़ है तो महरम-ए-असरार न बन

अपनी गर्दन पे मचलती हुई तलवार न बन
नंग-ए-ईमाँ ही सही सूरत-ए-इंकार न बन

बद-गुमानी को मिरी और बढ़ा देता है
उन का ये कहना कि दामन-कश-ए-अग़्यार न बन

रहरव-ए-मंज़िल-ए-हस्ती हूँ मैं ऐ याद-ए-हबीब
धूप में मेरे लिए साया-ए-दीवार न बन

दिल को तकमील-ए-तमन्ना का इशारा दे कर
मुझ से तू मेरी तमन्ना का ख़रीदार न बन

तेरी मंज़िल है गुबार-ए-रह-ए-अर्बाब-ए-वफ़ा
रहरव-ए-राह-ए-तलब क़ाफ़िला-सालार न बन

जिन के दामन में तमन्ना को सुकूँ मिलता है
उन की नज़रों से मोहब्बत का तलबगार न बन

वो तिरी मस्त-निगाही का उड़ा लेंगे मज़ाक़
अहल-ए-दानिश में कभी भूल के होशियार न बन

हो न जाए कहीं मसदूद तिरी राह-ए-तलब
ऐ मिरी लौह-ए-जबीं संग-ए-दर-ए-यार न बन