हुस्न-ए-फ़ानी पर हम अपना दिल फ़िदा करते रहे
अब पशेमाँ हैं कि सारी उम्र क्या करते हैं
हम समझते हैं जनाब-ए-शैख़ क्या करते रहे
हूर-ओ-ग़िल्माँ के लिए याद-ए-ख़ुदा करते रहे
ज़ब्त-ए-गिर्या ज़ब्त-ए-नाला ज़ब्त-ए-फ़र्याद-ओ-फ़ुगाँ
इश्क़ में जो कुछ भी हम से हो सका करते रहे
किस तरह सोए पड़े हैं चैन से ज़ेर-ए-मज़ार
जो ज़मीं पर हर घड़ी महशर बपा करते रहे
सच अगर पूछो तो हम काफ़िर भी हैं मोमिन भी हैं
बुत-कदा में बैठ कर याद-ए-ख़ुदा करते रहे
मौत ही आख़िर इलाज-ए-कारगर साबित हुई
दर्द-ए-दिल बढ़ता रहा जूँ जूँ दवा करते रहे
अहल-ए-हिम्मत ने तो ऐ 'सीमाब' मंज़िल मार ली
हम मगर हिरमाँ-नसीबी का गिला करते रहे
ग़ज़ल
हुस्न-ए-फ़ानी पर हम अपना दिल फ़िदा करते रहे
सीमाब बटालवी