हुस्न-ए-अज़ल ने पहले हमें जल्वा-गर किया
दुनिया-ए-हस्त-ओ-बूद से फिर बे-ख़बर किया
उस बे-नियाज़-ए-इश्क़ ने आशुफ़्ता-सर किया
दैर-ओ-हरम सजाए परेशाँ-नज़र किया
आसूदगान-ए-ख़ाक को फिर दर-ब-दर किया
ज़ौक़-नुमूद-सुब्ह में बर्ग-ओ--शजर किया
ता-उम्र अपनी ज़ात के अंदर बसर किया
इस काएनात-शौक़ को हम ने भी सर किया
दम-भर रुके थे साया-मिज़्गान-ए-यार में
उस ख़ानुमाँ-ख़राब ने भी दिल में घर किया
हम को शुऊर-ए-सब्र-ओ-रज़ा से नवाज़ कर
ग़म-आश्नाए-लज़्ज़त-ए-दर्द-ए-जिगर किया
अहल-ए-जुनूँ ने दश्त-नवर्दी की राह में
आवारगान-ए-इश्क़ को भी हम-सफ़र किया
तुझ को ही हम से वस्ल की मोहलत नहीं मिली
हम ने तो इंतिज़ार तिरा उम्र-भर किया
परतव है तेरी ज़ात का हर लम्हा-ए-वजूद
हम ने ये फ़ैसला तिरी आयाब पर किया
लो बारगाह-ए-दर्द में रख कर मता-ए-दिल
'रिफ़अत' ने इस जहान से आगे सफ़र किया

ग़ज़ल
हुस्न-ए-अज़ल ने पहले हमें जल्वा-गर किया
रिफ़अतुल क़ासमी