हुस्न-ए-आलम-सोज़ ना-महदूद होना चाहिए
हर तजल्ली आफ़्ताब-आलूद होना चाहिए
हुस्न-ए-निय्यत है दलील-ए-हुस्न अंजाम-ए-अमल
सई में भी जल्वा-ए-मक़सूद होना चाहिए
एक ही जल्वा है जब हंगामा-आरा-ए-शुहूद
फिर वही शाहिद वही मशहूद होना चाहिए
हुस्न-ए-आलम-सोज़ का फ़ैज़-ए-तजल्ली आम है
एक इक ज़र्रा यहाँ मस्जूद होना चाहिए
शाना-ओ-आईना क्या ऐ ज़ुल्फ़-ए-मुश्कीन-ए-अयाज़
तेरी ज़ीनत को दिल-ए-महमूद होना चाहिए
बे-नियाज़ी अब ख़ता-कारों की हिम्मत बढ़ गई
बाब-ए-तौबा कुछ दिनों मसदूद होना चाहिए
काविश-ए-मिज़्गान का पैहम तक़ाज़ा है 'अज़ीज़'
हर-नफ़स को तेरे ख़ून-आलूद होना चाहिए
ग़ज़ल
हुस्न-ए-आलम-सोज़ ना-महदूद होना चाहिए
अज़ीज़ लखनवी