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हुस्न भी है पनाह में इश्क़ भी है पनाह में | शाही शायरी
husn bhi hai panah mein ishq bhi hai panah mein

ग़ज़ल

हुस्न भी है पनाह में इश्क़ भी है पनाह में

हैरत गोंडवी

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हुस्न भी है पनाह में इश्क़ भी है पनाह में
इक तिरी निगाह में इक मिरी निगाह में

खेल नहीं हँसी नहीं हाल मेरा सुन न सुन
दर्द है दो जहान का इश्क़ की एक आह में

ख़ूगर-ए-ज़ुल्म-ओ-जौर को शिकवा-ए-इलतिफ़ात है
क़ल्ब से उठ के छा गई ग़म की घटा निगाह में

ता-ब-हद्द-ए-दीद है एक सिरात-ए-मुस्तक़ीम
हाजत-ए-राहबर नहीं इश्क़ की शाहराह में

दस्त-ए-करम बढ़ा दिया उस ने बिला लिहाज़-ए-जुर्म
क़ाबिल-ए-रहम कुछ न था वर्ना मिरे गुनाह में

कुछ मिरी बे-क़रारियाँ कुछ मिरी ना-तवानियाँ
कुछ तिरी रहमतों का है हाथ मिरे गुनाह में

लाला-ओ-गुल की महफ़िलें अपनी जगह पे कुछ न थी
जाम-ए-बहार बन गए खिंच के मिरी निगाह में