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हुस्न और इश्क़ को फ़र्क़-ए-नज़री क्यूँ कहिए | शाही शायरी
husn aur ishq ko farq-e-nazari kyun kahiye

ग़ज़ल

हुस्न और इश्क़ को फ़र्क़-ए-नज़री क्यूँ कहिए

मोहम्मद नक़ी रिज़वी असर

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हुस्न और इश्क़ को फ़र्क़-ए-नज़री क्यूँ कहिए
मय की तासीर को इक बे-ख़बरी क्यूँ कहिए

हर-नफ़स ज़ीस्त का हो जाए अगर वक़्फ़-ए-तलाश
जुस्तुजू कहिए उसे दर-बदरी क्यूँ कहिए

कोह-ओ-सहरा ही नहीं अर्श की लाता हूँ ख़बर
मेरी पर्वाज़ को बे-बाल-ओ-परी क्यूँ कहिए

कश्तियाँ डूब के उभरें जो किसी तूफ़ाँ में
ना-ख़ुदाओं की उसे दीदा-वरी क्यूँ कहिए

बुझते बुझते भी अँधेरों की रहे जो दुश्मन
ऐसी हस्ती को चराग़-ए-सहरी क्यूँ कहिए

जब सुलझती न हो कोशिश से भी उलझी हुई बात
फिर तो हालात को आफ़त से बरी क्यूँ कहिए

एक कोशिश थी जो नाकाम रही क़िस्मत से
'अस्र' कुछ कहिए उसे बे-हुनरी क्यूँ कहिए