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हुनर-मंदी से जीने का हुनर अब तक नहीं आया | शाही शायरी
hunar-mandi se jine ka hunar ab tak nahin aaya

ग़ज़ल

हुनर-मंदी से जीने का हुनर अब तक नहीं आया

ख़ालिद महमूद

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हुनर-मंदी से जीने का हुनर अब तक नहीं आया
सफ़र करते रहे तर्ज़-ए-सफ़र अब तक नहीं आया

ग़लत है तेरे अश्कों में असर अब तक नहीं आया
तुझे रोना ऐ मेरी चश्म-ए-तर अब तक नहीं आया

हज़ारों फ़लसफ़ी क़ब्ज़ा किए बैठे हैं ज़ेहनों पर
मिरे क़ाबू में या-रब मेरा सर अब तक नहीं आया

पड़ा रहता है हर दम ख़ौफ़ का साया रग-ए-जाँ पर
कोई बे-ख़ौफ़ लम्हा बे-ख़तर अब तक नहीं आया

हमारे सर पे है साया-फ़गन उम्मीद का सूरज
हमारी राह में कोई शजर अब तक नहीं आया

हमें तो क़ाफ़िया-पैमाई करना भी नहीं आता
बड़ा फ़न है जो आ जाता मगर अब तक नहीं आया

वो कहते हैं दुआएँ बा-असर होती हैं 'ख़ालिद' की
मैं कहता हूँ कोई ज़ेर-ए-असर अब तक नहीं आया