हुक्म-ए-सय्याद है ता-ख़त्म-ए-तमाशा-ए-बहार
सारी दुनिया कहे बुलबुल न कहे हाए बहार
सुब्ह गुल-गश्त को जाते हो कि शरमाए बहार
क्या ये मतलब है गुलिस्ताँ से निकल जाए बहार
मुँह से कुछ भी दम-ए-रुख़्सत न कहा बुलबुल ने
सिर्फ़ सय्याद ने इतना तो सुना हाए बहार
ये भी कुछ बात हुई गुल हँसे तुम रूठ गए
इस पे ये ज़िद कि अभी ख़ाक में मिल जाए बहार
तेरे क़ुर्बान 'क़मर' मुँह सर-ए-गुलज़ार न खोल
सदक़े उस चाँद सी सूरत पे न हो जाए बहार
ग़ज़ल
हुक्म-ए-सय्याद है ता-ख़त्म-ए-तमाशा-ए-बहार
क़मर जलालवी