हुजूम-ए-दर्द मिला इम्तिहान ऐसा था
मगर वो चुप ही रहा बे-ज़बान ऐसा था
किसी की इज़्ज़त-ओ-नामूस पर न आँच आई
लुटा तो उफ़ भी न की मेहरबान ऐसा था
ज़माना गुज़रा मगर दाग़ रह गया दिल पर
न मिट सका किसी सूरत निशान ऐसा था
बदन की शाख़ से उस के किरन जो लिपटी थी
वो सह सका न उसे धान-पान ऐसा था
मता-ए-ज़ीस्त लुटा दी गई मगर उस ने
ज़रा भी क़द्र न की बद-गुमान ऐसा था
नज़र-शनास था कैसा कि उम्र भर 'अंजुम'
भुला सका न उसे मेहमान ऐसा था
ग़ज़ल
हुजूम-ए-दर्द मिला इम्तिहान ऐसा था
ग़यास अंजुम