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हुई या मुझ से नफ़रत या कुछ इस में किब्र-ओ-नाज़ आया | शाही शायरी
hui ya mujhse nafrat ya kuchh isMein kibr-o-naz aaya

ग़ज़ल

हुई या मुझ से नफ़रत या कुछ इस में किब्र-ओ-नाज़ आया

शौक़ क़िदवाई

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हुई या मुझ से नफ़रत या कुछ इस में किब्र-ओ-नाज़ आया
कभी वो मुस्कुरा देता था अब इस से भी बाज़ आया

नया फ़ित्ना जो निकला कोई तो ता'लीम दिलवाने
ज़माना ले के उस को पेश-ए-चश्म-ए-फ़ित्ना-साज़ आया

बदलती रहती है हर दम मिरी शक्ल इस क़दर ग़म से
गया जब मैं तो समझा वो नया इक इश्क़-बाज़ आया

हुई दिल की ख़बर दिल को कि वो बद-ज़न हुआ वर्ना
न टपके अश्क आँखों से न मुँह तक हर्फ़-ए-राज़ आया

बचाया दर्द से मजबूर कर के तर्क-ए-उल्फ़त पर
वो आया दिल-शिकन बन कर तो गोया दिल-नवाज़ आया

तिरे हाथों शिकस्त-ए-दिल में लुत्फ़-ए-दिल-नवाज़ी है
ये क्या कम है कि पहलू तक तिरा दस्त-ए-दराज़ आया

मगर ताज़ा सितम को वो मिरी सेहत का ख़्वाहाँ है
कि कल ज़ख़्मी किया और आज बन कर चारासाज़ आया

ग़ुबार-ए-राह ने आँखें मिलाने दीं न दिल भर के
वो मेरे घर जो आया ले के चश्म-ए-नीम-बाज़ आया

हुआ है 'शौक़' मय-ख़ाने में दाख़िल किस तकल्लुफ़ से
बिछाने के लिए मस्जिद से ले कर जा-नमाज़ आया