हुए हैं गुम जिस की जुस्तुजू में उसी की हम जुस्तुजू करेंगे
रक्खा है महरूम जिस ने हम को उसी की हम आरज़ू करेंगे
गए वो दिन जब कि इस चमन में हवा-ए-नश्व-ओ-नुमा थी हम को
ख़िज़ाँ को देखा नहीं है हम ने कि ख़्वाहिश-ए-रंग-ओ-बू करेंगे
हिकायत-ए-आरज़ू है नाज़ुक ज़बान क्या ख़ाक कह सकेगी
लब-ए-ख़मोश-ओ-निगाह-ए-हसरत से दिल की हम गुफ़्तुगू करेंगे
जगह जो आँखों में मैं ने दी थी तो उन से थी चश्म-ए-राज़-दारी
ये क्या ख़बर थी कि अश्क मेरे मुझी को बे-आबरू करेंगे
अभी तो गुम-कर्दा-राह ख़ुद हैं मय-ए-मोहब्बत की बे-ख़ुदी में
अगर कभी आप में हम आए तो उस की भी जुस्तुजू करेंगे
उस अंजुमन में कि चश्म-ए-साक़ी कफ़ील हो ऐश-ए-ज़िंदगी की
वो बादा-ख़्वारी में ख़ाम होंगे जो फ़िक्र-ए-जाम-ओ-सुबू करेंगे
तहारत-ए-ज़ाहिरी से हासिल न हो सकेगी सफ़ा-ए-बातिन
बहा के हम ख़ून-ए-तौबा 'वहशत' उसी से इक दिन वुज़ू करेंगे
ग़ज़ल
हुए हैं गुम जिस की जुस्तुजू में उसी की हम जुस्तुजू करेंगे
वहशत रज़ा अली कलकत्वी