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हुए आज़िम-ए-मुल्क-ए-अदम जो 'हवस' तो ख़ुशी ये हुई थी कि ग़म से छुटे | शाही शायरी
hue aazim-e-mulk-e-adam jo hawas to KHushi ye hui thi ki gham se chhuTe

ग़ज़ल

हुए आज़िम-ए-मुल्क-ए-अदम जो 'हवस' तो ख़ुशी ये हुई थी कि ग़म से छुटे

मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस

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हुए आज़िम-ए-मुल्क-ए-अदम जो 'हवस' तो ख़ुशी ये हुई थी कि ग़म से छुटे
पर फ़राग़ अलम से न वाँ भी मिला वाँ ग़म ये हुआ कि वो हम से छुटे

कभी दैर में थे किसी बुत पे फ़िदा कभी का'बे में करते जा के दुआ
तिरे कूचे में बैठे तो ख़ूब हुआ कि कशाकश-ए-दैर-ओ-हरम से छुटे

यही कहती थी लैली-ए-पर्दा-नशीं कि फ़िराक़ की अब उसे ताब नहीं
मिलूँ उस से मैं ता मिरा क़ैस-ए-हज़ीं ग़म-ए-हिज्र के दर्द-ओ-अलम से छुटे

मैं हुआ भी जो बिस्मिल-ए-तेग़-ए-जफ़ा वले बाक़ी है दिल में अभी ये वफ़ा
कि यक़ीं है लहू मिरा जा-ए-हिना जो लगे तो न पा-ए-सनम से छुटे

न हो बस्ता-ए-चीन-ए-कमंद-ओ-रसन रहे भागता है वो ब-दश्त-ए-ख़ुतन
तिरी चश्म हो उस पे जो साया-फ़गन कभी पा-ए-ग़ज़ाल न रम से छुटे

न क्यूँ शाकी हों बख़्त-ए-सियाह से हम कि वो मादिन-ए-शफ़क़त-ओ-लुत्फ़-ओ-करम
करे नाला-ए-शौक़ जो हम को रक़म तो स्याही न नोक-ए-क़लम से छुटे

मुझे रह में मिले थे वो बाँधे कमर चले जाते थे बाग़ को वक़्त-ए-सहर
उन्हें लाता पकड़ मुझे किस का था डर प फ़रेब के क़ौल-ओ-क़सम से छुटे

हुए ख़ौफ़ से गोशा-गुज़ीन असस गया सीना पिलंग-ए-फ़लक का झुलस
शब-ए-हिज्र में यारो बग़ैर-ए-'हवस' मिरे नाले जो शेर अजम से छुटे