EN اردو
हुआ ज़ाहिर ख़त-ए-रू-ए-निगार आहिस्ता-आहिस्ता | शाही शायरी
hua zahir KHat-e-ru-e-nigar aahista-ahista

ग़ज़ल

हुआ ज़ाहिर ख़त-ए-रू-ए-निगार आहिस्ता-आहिस्ता

वली मोहम्मद वली

;

हुआ ज़ाहिर ख़त-ए-रू-ए-निगार आहिस्ता-आहिस्ता
कि ज्यूँ गुलशन में आती है बहार आहिस्ता-आहिस्ता

किया हूँ रफ़्ता रफ़्ता राम उस की चश्म-ए-वहशी कूँ
कि ज्यूँ आहू कूँ करते हैं शिकार आहिस्ता-आहिस्ता

जो अपने तन कूँ मिस्ल-ए-जूएबार अव्वल किया पानी
हुआ उस सर्व-क़द सूँ हम-कनार आहिस्ता-आहिस्ता

बरंग-ए-क़तरा-ए-सीमाब मेरे दिल की जुम्बिश सूँ
हुआ है दिल सनम का बे-क़रार आहिस्ता-आहिस्ता

उसे कहना बजा है इश्क़ के गुलज़ार का बुलबुल
जो गुल-रूयाँ में पाया ए'तिबार आहिस्ता-आहिस्ता

मिरा दिल अश्क हो पहुँचा है कूचे में सिरीजन के
गया काबे में ये कश्ती-सवार आहिस्ता-आहिस्ता

'वली' मत हासिदाँ की बात सूँ दिल कूँ मुकद्दर कर
कि आख़िर दिल सूँ जावेगा ग़ुबार आहिस्ता-आहिस्ता