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हुआ ख़ुर्शीद के देखे से दूना इज़्तिराब अपना | शाही शायरी
hua KHurshid ke dekhe se duna iztirab apna

ग़ज़ल

हुआ ख़ुर्शीद के देखे से दूना इज़्तिराब अपना

नज़ीर अकबराबादी

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हुआ ख़ुर्शीद के देखे से दूना इज़्तिराब अपना
कि ये निकला सहर को और न निकला आफ़्ताब अपना

तिरे मुँह के जो हर दम रू-ब-रू आने को कहता है
ज़रा आईना ले कर मुँह तो देखे आफ़्ताब अपना

न इतना ज़ुल्म कर ऐ चाँदनी बहर-ए-ख़ुदा छुप जा
तुझे देखे से याद आता है मुझ को माहताब अपना

ख़फ़ा देखा है उस को ख़्वाब में दिल सख़्त मुज़्तर है
खिला दे देखिए क्या क्या गुल-ए-ताबीर-ए-ख़्वाब अपना

सहर-आसा अयाँ होते ही ली राह-ए-अदम हम ने
हुआ आना भी और जाना भी ऐसा कुछ शिताब अपना

'नज़ीर' इस बहर में फ़ुर्सत कम और ऐश-ओ-तरब लाखों
तो फिर अब हक़-ब-जानिब है करे क्या क्या हिसाब अपना