हुआ ख़ुर्शीद के देखे से दूना इज़्तिराब अपना
कि ये निकला सहर को और न निकला आफ़्ताब अपना
तिरे मुँह के जो हर दम रू-ब-रू आने को कहता है
ज़रा आईना ले कर मुँह तो देखे आफ़्ताब अपना
न इतना ज़ुल्म कर ऐ चाँदनी बहर-ए-ख़ुदा छुप जा
तुझे देखे से याद आता है मुझ को माहताब अपना
ख़फ़ा देखा है उस को ख़्वाब में दिल सख़्त मुज़्तर है
खिला दे देखिए क्या क्या गुल-ए-ताबीर-ए-ख़्वाब अपना
सहर-आसा अयाँ होते ही ली राह-ए-अदम हम ने
हुआ आना भी और जाना भी ऐसा कुछ शिताब अपना
'नज़ीर' इस बहर में फ़ुर्सत कम और ऐश-ओ-तरब लाखों
तो फिर अब हक़-ब-जानिब है करे क्या क्या हिसाब अपना
ग़ज़ल
हुआ ख़ुर्शीद के देखे से दूना इज़्तिराब अपना
नज़ीर अकबराबादी