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हुआ जब जल्वा-आरा आप का ज़ौक़-ए-ख़ुद-आराई | शाही शायरी
hua jab jalwa-ara aap ka zauq-e-KHud-arai

ग़ज़ल

हुआ जब जल्वा-आरा आप का ज़ौक़-ए-ख़ुद-आराई

शिव रतन लाल बर्क़ पूंछवी

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हुआ जब जल्वा-आरा आप का ज़ौक़-ए-ख़ुद-आराई
तमाशा रह गया बन कर जहाँ का हर तमाशाई

बहारें ही हुआ करती हैं तम्हीद-ए-ख़िज़ाँ अक्सर
वहाँ बरसों रहा मातम जहाँ पल भर ख़ुशी आई

बहर-सूरत क़यामत है वो आएँ या चले जाएँ
जो आए तो सुकूँ छीना गए तो जान तड़पाई

कली चटकी न गुल महके न ग़ुंचों पर निखार आया
अजब अंदाज़ से अब के गुलिस्ताँ में बहार आई

जहाँ मुझ को नज़र आया कोई नक़्श-ए-क़दम उन का
वहीं इक दम तड़प उट्ठा मिरा शौक़-ए-जबीं-साई

ये क्या तर्ज़-ए-मुसावात-ए-जहाँ है आदिल-ए-मुतलक़
कहीं आहें निकलती हैं कहीं बजती है शहनाई

मिरी ख़ल्वत में लाखों आरज़ूएँ जल्वा-फ़रमा हैं
कहीं महफ़िल से बढ़ कर है मिरी ऐ 'बर्क़' तन्हाई