हुआ जब जल्वा-आरा आप का ज़ौक़-ए-ख़ुद-आराई
तमाशा रह गया बन कर जहाँ का हर तमाशाई
बहारें ही हुआ करती हैं तम्हीद-ए-ख़िज़ाँ अक्सर
वहाँ बरसों रहा मातम जहाँ पल भर ख़ुशी आई
बहर-सूरत क़यामत है वो आएँ या चले जाएँ
जो आए तो सुकूँ छीना गए तो जान तड़पाई
कली चटकी न गुल महके न ग़ुंचों पर निखार आया
अजब अंदाज़ से अब के गुलिस्ताँ में बहार आई
जहाँ मुझ को नज़र आया कोई नक़्श-ए-क़दम उन का
वहीं इक दम तड़प उट्ठा मिरा शौक़-ए-जबीं-साई
ये क्या तर्ज़-ए-मुसावात-ए-जहाँ है आदिल-ए-मुतलक़
कहीं आहें निकलती हैं कहीं बजती है शहनाई
मिरी ख़ल्वत में लाखों आरज़ूएँ जल्वा-फ़रमा हैं
कहीं महफ़िल से बढ़ कर है मिरी ऐ 'बर्क़' तन्हाई
ग़ज़ल
हुआ जब जल्वा-आरा आप का ज़ौक़-ए-ख़ुद-आराई
शिव रतन लाल बर्क़ पूंछवी