होता अगर दबीज़ जुनून-ए-सफ़र का रंग
ख़ुद ही उतरने लगता रह-ए-पुर-ख़तर का रंग
सूरज ग़ुरूब होते हुए मुझ से कह गया
कुछ तो बता कि कैसा है ख़ून-ए-जिगर का रंग
ऐ अहलियान-ए-अम्न-ओ-उख़ूवत मैं क्या कहूँ
किस दर्जा सुर्ख़ है तिरे दीवार-ओ-दर का रंग
माना कि लब ख़मोश थे आँखें तो चुप न थीं
सब राज़ फ़ाश कर गया तेरी नज़र का रंग
हाँ ऐ अमीर-ए-शहर ज़रा आँख तो मिला
तुझ को बताऊँ क्या है रुख़-ए-मो'तबर का रंग
मैं आसमान ओढ़ के सोया रहा 'सबा'
ग़ुर्बत पे मेरी हँसता रहा शब क़मर का रंग

ग़ज़ल
होता अगर दबीज़ जुनून-ए-सफ़र का रंग
कामरान ग़नी सबा