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होश मंज़िल खो के मंज़िल का पता पाते हैं लोग | शाही शायरी
hosh manzil kho ke manzil ka pata pate hain log

ग़ज़ल

होश मंज़िल खो के मंज़िल का पता पाते हैं लोग

माहिर बलगिरामी

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होश मंज़िल खो के मंज़िल का पता पाते हैं लोग
तर्क-ए-लज़्ज़त में तो कुछ लज़्ज़त सिवा पाते हैं लोग

दर्द के मारों को ही दर्द-आश्ना पाते हैं लोग
बे-वफ़ाओं में कहाँ बू-ए-वफ़ा पाते हैं लोग

नुत्क़ क़ासिर है बयाँ से वो मज़ा पाते हैं लोग
मुझ से पूछो इश्क़ में गुम हो के क्या पाते हैं लोग

बा'द इस्तिग़राक़ हाथ आई है बस मतलब की बात
डूब कर गहरे में दुर्र-ए-बे-बहा पाते हैं लोग

करते अपने से बड़ों का हैं जो दिल से एहतिराम
रहते हैं ख़ुश यूँ बुज़ुर्गों की दुआ पाते हैं लोग

मंज़िल-ए-दार-ओ-रसन हो या सलीब-ए-सरफ़राज़
अपने ही नक़्श-ए-कफ़-ए-पा जा-ब-जा पाते हैं लोग

भूल कर ख़ुद को ख़ुदा की याद में होते हैं महव
नाख़ुदा को भी भँवर में बा-ख़ुदा पाते हैं लोग

बे-ख़ुदी में राज़-ए-दिल कह डालते हैं बे-झिजक
पीने वालों को नशे में पारसा पाते हैं लोग

छाँव की धूप और बारिश में है खुलती अहमियत
सर छुपाते हैं जहाँ साया ज़रा पाते हैं लोग

ख़ुद में आती हैं नज़र हिर्स-ओ-हवस की बस्तियाँ
दीदा-ए-बीना कभी जब अपने वा पाते हैं लोग

लुत्फ़-ए-ख़ास उस का समझ कर दिल से करते हैं क़ुबूल
जो भी दस्त-ए-नाज़ से अच्छा बुरा पाते हैं लोग

लगता ख़ाली ज़ेहन शैताँ की दुकाँ हो जिस तरह
घर में घुसते हैं जो दरवाज़ा खुला पाते हैं लोग

क़द्र-ओ-क़ीमत दर्द-ए-दिल की अहल-ए-दिल से पूछिए
दर्द को दरमान-ए-दर्द-ए-ला-दवा पाते हैं लोग

जौहर-ए-ज़ाती मोहब्बत ज़ब्त है उस का शिआ'र
हुस्न-ए-ख़ुद-बीं को अज़ल से ख़ुद-नुमा पाते हैं लोग

ख़ाना-ए-दिल तो मोहब्बत में रहा बाग़-ओ-बहार
और घर होंगे जिन्हें वहशत-सरा पाते हैं लोग

दस्त-ए-अक़्दस से जो हाथ आए ग़नीमत जानिए
बद-दुआ' को भी बुज़ुर्गों की दुआ पाते हैं लोग

भाई को कर दे जुदा भाई से रोटी क्या अजब
खाने में ख़ुद अपने होंटों को जुदा पाते हैं लोग

उस का लुत्फ़-ए-ख़ास जो ये इस्तिताअत है नसीब
बार-ए-ग़म जुज़ इब्न-ए-आदम क्या उठा पाते हैं लोग

चाँदनी रातों में मौज-ए-आब-ए-जू के साथ साथ
'माहिर'-ए-ख़ुश-गो को भी नग़्मा-सरा पाते हैं लोग