EN اردو
होने को यूँ तो शहर में अपना मकान था | शाही शायरी
hone ko yun to shahr mein apna makan tha

ग़ज़ल

होने को यूँ तो शहर में अपना मकान था

आदिल मंसूरी

;

होने को यूँ तो शहर में अपना मकान था
नफ़रत का रेगज़ार मगर दरमियान था

लम्हे के टूटने की सदा सुन रहा था मैं
झपकी जो आँख सर पे नया आसमान था

कहने को हाथ बाँधे खड़े थे नमाज़ में
पूछो तो दूसरी ही तरफ़ अपना ध्यान था

अल्लाह जाने किस पे अकड़ता था रात दिन
कुछ भी नहीं था फिर भी बड़ा बद-ज़बान था

शोले उगलते तीर बरसते थे चर्ख़ से
साया था पास में न कोई साएबान था

सब से किया है वस्ल का वादा अलग अलग
कल रात वो सभी पे बहुत मेहरबान था

मुँह-फट था बे-लगाम था रुस्वा था ढीट था
जैसा भी था वो दोस्तो महफ़िल की जान था