होने की गवाही के लिए ख़ाक बहुत है
या कुछ भी नहीं होने का इदराक बहुत है
इक भूली हुई बात है इक टूटा हुआ ख़्वाब
हम अहल-ए-मोहब्बत को ये इम्लाक बहुत है
कुछ दर-बदरी रास बहुत आई है मुझ को
कुछ ख़ाना-ख़राबों में मिरी धाक बहुत है
पर्वाज़ को पर खोल नहीं पाता हूँ अपने
और देखने में वुसअ'त-ए-अफ़्लाक बहुत है
क्या उस से मुलाक़ात का इम्काँ भी नहीं अब
क्यूँ इन दिनों मैली तिरी पोशाक बहुत है
आँखों में हैं महफ़ूज़ तिरे इश्क़ के लम्हात
दरिया को ख़याल-ए-ख़स-ओ-ख़ाशाक बहुत है
नादिम है बहुत तू भी 'जमाल' अपने किए पर
और देख ले वो आँख भी नमनाक बहुत है
ग़ज़ल
होने की गवाही के लिए ख़ाक बहुत है
जमाल एहसानी