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हों क्यूँ न मुन्कशिफ़ असरार पस्त-ओ-बाला के | शाही शायरी
hon kyun na munkashif asrar past-o-baala ke

ग़ज़ल

हों क्यूँ न मुन्कशिफ़ असरार पस्त-ओ-बाला के

अब्दुल अज़ीज़ ख़ालिद

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हों क्यूँ न मुन्कशिफ़ असरार पस्त-ओ-बाला के
जमे हैं पाँव ज़मीं पर सर आसमाँ को छुए

जो सरनविश्त में है उस को हो के रहना है
तो किस भरोसे पे इंसान जिद्द-ओ-जहद करे

अब आसमाँ से सहीफ़े नहीं उतरते मगर
खुला हुआ है दर-ए-इज्तिहाद सब के लिए

ज़बाँ अता करे शे'र उन की बे-ज़बानी को
जो अपने कर्ब का इज़हार कर नहीं सकते

बहार-ओ-बहजत-ओ-इज़्ज़-ओ-वक़ार उस पे निसार
ज़बाँ से माल से जाँ से जो ज़ालिमों से लड़े

है आँसुओं में शिफ़ा कैसी क्या ख़बर उस को
बहाए मक्र से जो झूट-मूट के टस्वे

है बस-कि काम हम ऐसों का भी मसीहाई
हम आसमान पे ज़िंदा उठाए जाएँगे