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होगा क्या चाँद-नगर सोचते हैं | शाही शायरी
hoga kya chand-nagar sochte hain

ग़ज़ल

होगा क्या चाँद-नगर सोचते हैं

बशीर मुंज़िर

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होगा क्या चाँद-नगर सोचते हैं
हम ब-उनवान-ए-दिगर सोचते हैं

अपना ज़ाहिर में कोई जुर्म न था
क्यूँ हुए शहर-बदर सोचते हैं

शाख़-दर-शाख़ हैं गुम-सुम ताइर
सर को नेहुड़ाए शजर सोचते हैं

कोई बतलाए ये क्या वादी है
दम-ब-ख़ुद कोह हजर सोचते हैं

जाने क्यूँ मुझ से बिछड़ कर 'मुंज़िर'
वो भी मानिंद-ए-बशर सोचते हैं