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हो तिरा इश्क़ मिरी ज़ात का मेहवर जैसे | शाही शायरी
ho tera ishq meri zat ka mehwar jaise

ग़ज़ल

हो तिरा इश्क़ मिरी ज़ात का मेहवर जैसे

उरूज ज़ेहरा ज़ैदी

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हो तिरा इश्क़ मिरी ज़ात का मेहवर जैसे
उसी एहसास की मैं हो गई ख़ूगर जैसे

एक वीरानी तिरे लहजे से आई मुझ तक
फिर वही मेरे उतर आई हो अंदर जैसे

कोई भी काम मेरे हक़ में नहीं हो पाता
रूठ कर बैठ गया हो ये मुक़द्दर जैसे

वो कोई वक़्त था जब दिल था बड़ा नाज़ुक सा
अब तो सीने में रखा है कोई पत्थर जैसे

हो तिरा हाल मेरे इश्क़ में वैसा 'ज़ेहरा'
है मिरा हाल तिरे हिज्र में अबतर जैसे