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हो रही है दर-ब-दर ऐसी जबीं-साई कि बस | शाही शायरी
ho rahi hai dar-ba-dar aisi jabin-sai ki bas

ग़ज़ल

हो रही है दर-ब-दर ऐसी जबीं-साई कि बस

वामिक़ जौनपुरी

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हो रही है दर-ब-दर ऐसी जबीं-साई कि बस
क्या अभी बाक़ी है कोई और रुस्वाई कि बस

आश्ना राहें भी होती जा रही हैं अजनबी
इस तरह जाती रही आँखों से बीनाई कि बस

ता सहर करते रहे हम इंतिज़ार-ए-मेहर-ए-नौ
देखते ही देखते ऐसी घटा छाई कि बस

ढूँडते ही रह गए हम लाल ओ अल्मास ओ गुहर
कोर बद-बीनों ने ऐसी ख़ाक छनवाई कि बस

कुछ शुऊर ओ हिस का था बोहरान हम में वर्ना हम
अहद-ए-नौ की इस तरह करते पज़ीराई कि बस

क्या नहीं कज-अक्स आईनों का दुनिया में इलाज
जिस को देखो है अजब महव-ए-ख़ुद-आराई कि बस

चाकरी करते हुए भी हम रहे आज़ाद-रौ
दस्त-ओ-पा-ए-शौक़ में है वो तवानाई कि बस

आह क्या करते कि हम आदी न थे आराम के
चोट इक इक गाम पर अलबत्ता वो खाई कि बस

उस हसीं गीती के खुल कर रह गए सब जोड़-बंद
चंद पागल ज़र्रों को आई वो अंगड़ाई कि बस

वो तो कहिए बात कि फ़ुर्सत न थी वर्ना अजल
पूछती गाव-ए-ज़मीं से और पसपाई कि बस

कौन शाइर था कहीं का कौन दानिश-वर मगर
दफ़्तरों की दौड़ 'वामिक़' ऐसी रास आई कि बस